या रब किसी से छीन कर मुझ को खु शी न दे
जो दूसरों पे भार हो वो जिंदगी न दे
सज़दे में ही पड़ा रहूँ दिन रात तेरे लेकिन
जिसमे दुआ न निकले वो बंदगी न दे
रहने दे ज़मीं पर ही उड़ना नहीं है मुझको
ज़ख़्मी हो जब परिंदे परवाज़गी न दे
साकी हो जाम भी हो महफ़िल हो शाम भी हो
पीकर कदम न बहके वो मयकशी न दे
दुश्मन के भंवर से तो वाकिफ हूँ मैं मगर
साहिल पे जो डुबोये वो दोस्ती न दे
चलने दे "मुसाफिर" को तन्हा ही राह में
जो कांटे ही बिछाए वो रहबरी न दे
सईद "मुसाफिर"
१२ जून २०१०
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